Sunday, February 22, 2009

अंजान दलदल

एक अंजान सी घबराहट,
बेकारण, बेहिसाब
जब मैं न समझूं,
छोट्टी से छोट्टी बातें ।

क्यों रुका हूँ मैं,
क्यों नही चल रहा,
न मैं जानूं यह,
क्यों थमा हूँ मैं यहाँ.

पेट में अजीब सी गुड गुड
न पास है घर,
रास्ता भी चौडा,
और दूर है मंजिल.

रात है बड़ी घनी,
सूरज उभरेगा जल्द ही,
इन चन् पलों का गुज़रना,
ही तोह लगे जैसे एक सदी.

1 comment:

RohiniDG said...

amazing poetry at 3 in the morning! i really wish i could write like that. Anyway keep up the good work and who knows i may just be inspired yet. Cheers!